Friday, July 17, 2015

डिजीटल हो जाने पर सवालों का सायां






प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इंदिरा गांधी इन्डॉर स्टेडियम में  डिजीटल इंडिया मिशन लॉन्च कर दिया। डिजीटल इंडिया का अर्थ है पूरे भारत को इंटरनेट से जोड़ देना, अधिकतम काम को ऑन लाइन कर देना तथा प्रत्येक व्यक्ति तक ऑन लाईन सेवा की पहुंच। 125 करोड़ देश में यह अंग्रेजी में जिसे हर्क्युलियन टास्क कहते हैं वही होगा।
प्रधानमंत्री के चुनावी वायदों में यह शामिल था। अपने एक वर्ष के कार्यकाल में वे कई बार अपने डिजीटल इंडिया सपने पर जो बातें करते रहे हैं उनसे कई बातें स्पष्ट होतीं हैं। मसलन, वे चाहते हैं कि भारत का कोई भी गांव ऐसा न रहे जहां की इंटरनेट की पहुंच न हो और आवश्यक ऑन लाईन सेवा वहां उपलब्ध न हो। गांव के किसान भी अपना सामान बेचने के लिए ऑन लाइन कृषि बाजार पर मूल्य देखें, अपने सामानों की उपलब्धता बताएं और खरीदार आकर उनका सामान खरीदकर ले जाएं। निश्चय ही यह सुनने में सपना ही लगता है। ऐसा लगता है जैसे यह हकीकत नहीं, सोते समय आने वाला सुनहरा ख्वाब हो।
प्रधानमंत्री  मोदी के डिजीटल इंडिया के नौ मुख्य बिंदु है दृ
1. ब्रॉडबैंड हाइवे - सड़क हाइवे की तर्ज पर ब्रॉडबैंड हाइवे से शहरों को जोड़ा जाएगा.
2. सभी नागरिकों की टेलीफोन सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित की जाएगी.

3. सार्वजनिक इंटरनेट एक्सेस कार्यक्रम जिसके तहत इंटरनेट सेवाएं मुहैया कराई जाएंगी.
4. ई-गवर्नेंस - इसके अंतर्गत तकनीक के माध्यम से शासन प्रशासन में सुधार लाया जाएगा.
5. ई-क्रांति - इसके तहत विभिन्न सेवाओं को इलेक्ट्रॉनिक रूप में लोगों को मुहैया कराया जाएगा.
6. इंफोर्मेशन फॉर ऑल यानी सभी को जानकारियाँ मुहैया कराई जाएंगी.
7. इलेक्ट्रॉनिक्स उत्पादन - सरकार का लक्ष्य भारत में इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के लिए कल-पुर्जों के आयात को शून्य करना है.
8. आईटी फॉर जॉब्स यानी सूचना प्राद्योगिकी के जरिए अधिक नौकरियां पैदा की जाएंगी.
9. अर्ली हार्वेस्ट प्रोग्राम - इसका संबंध स्कूल-कॉलेजों में विद्यार्थियों और शिक्षकों की हाजिरी से है.

इस ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए  मिशन मोड में काम करना होगा। गांव-गांव, कस्बे-कस्बे नेट पहुंचाने के लिए व्यापक स्तर पर आधारभूत ढांचे का निर्माण करना होगा।  पूरे देश में केबल बिछाना होगा। पहाड़ों, नदियों, जंगलों से होकर दूरस्थ गांवों तक केबल ले जाना कितना कठिन काम है इसका अनुमान स्वयं लगाइए।
डिजीटल इंडिया में ऑन लाइन बुक  पढ़ने और ऑन लाइन लौकर जैसी सेवा उपलब्ध कराने का लक्ष्य है। यानी आपने कोई पुस्तक जहां तक पढ़ी वहीं उसको लौक कर दीजिए और अगली बार वहां से फिर आपको उपलब्ध होगा। आपने कोई औनलाइन नोट बनाया तो वह भी लौक हो जाएगा। आप अपने जरूरी डाक्यूमेंट भी ऑन लाईन रख सकते हैं। ऑन लाईन अस्पताल का भी सपना है। तो अभी यह सब ख्वाब ही लगता है।क्योंकी बीते दिनों ही राजस्थान सरकार के वेबसाइट को हैक कर लिया गया था जिसके बाद अब सवाल यह उठ रहा हैं कि डिजीटल इंडिया के तहत तैयार होने वाले ई-लौकर कितने सुरक्षित होंगे ?  हमारे रखे गये डाटा को कोई चुरा कर गलत इस्तमाल तो नहीं करेगा ?  डाटा को सुरक्षित रखने और हैकिंग जैसी विसाल समस्या से निपटने के लिए सरकार क्या करेगी ?
इस ख्वाब को हकीकत में बदलने के लिए एकदम मिशन मोड में काम करना होगा। गांव-गांव, कस्बे-कस्बे नेट पहुंचाने के लिए व्यापक स्तर पर आधारभूत ढांचे का निर्माण करना होगा। इसमें भारी खर्च की आवश्यकता है। इस समय डिजीटल फाइबर केबल ही पूरे देश में नहीं है। पूरे देश में केबल बिछाना होगा। पहाड़ों, नदियों, जंगलों से होकर दूरस्थ गांवों तक केबल ले जाना कितना कठिन काम है इसका अनुमान स्वयं लगाइए। इसी तरह इसके अन्य उपादान हैं। जगह-जगह एक्सचेंज की आवश्यकता होगी। अनुमान है कि इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र काफी निवेश करेंगे।
करीब 400 के आसपास कॉरपोरेट्स ने इस कार्यक्रम में उपस्थित दर्ज की। देखना होगा वे निवेश की कितनी घोषणाएं करते हैं। बगैर निजी क्षेत्र के यह संभव हो ही नहीं सकता। निजी क्षेत्र अगर आएंगी तो फिर सेवा भी वैसी सस्ती नहीं हो सकती जितनी आम आदमी को इस सेवा के उपयोग के लिए चाहिए। हमारे देश में स्पेक्ट्रम काफी महंगे हैं। वे कैसे सस्ती होंगी? इंटरनेट को निजी कंपनियों ने अभी काफी महंगा कर रखा है और जितनी स्पीड बताते हैं उसकी आधी भी नही देते। यह स्थिति दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रों शहरों की हैं। गांवों तक उनकी स्पीड की क्या दशा होगी? कैसे स्पीड बढ़ाई जाएगी?
आप अगर सेवा दे भी दें तो उसका उपयोग करने का ज्ञान भी तो लोगों को चाहिए। इसलिए इंटरनेट साक्षरता के विस्तार की बात है। इसे कैसे पूरा किया जाएगा? क्या साक्षरता कार्यक्रम के साथ इंटरनेट साक्षरता को भी समाहित किया जा सकता है?
तो हम तैयार रहें। डिजीटल इंडिया के रुप मे भारत के सम्पूर्ण रुपांतरण के महाअभियान की शुरुआत के लिए। उसमें अपनी भूमिका और योगदान की भी हमें तैयारी करनी चाहिए।

Thursday, July 16, 2015

छत्तीसगढ़ के सिस्टम को पोलियो हो गया हैं...आप देखिये तस्वीर और दया दिखाईये...



पहली चार तस्वीरे उन 4 शहीद पुलिस वालों का है जो सिस्टम की भेंट चढ़ गये... जब उनकी लाश सड़क पर पड़ी हुई थी तो (पिछले ब्लॉग में तस्वीरे उपलब्ध हैं) पुलिस को लाश उठाने में 3 घंटे कावक्त लगा और कुत्ते उनकी लाश को तब तक चाट रहे था... जिसके बाद उन लोगो को श्रद्धांजली दी गयी....





अब इन तस्वीरो को देखिये ... पहले पिताजी  बताते थे की पढ़ने के लिए उन लोगों को नदी पार करके जाना पड़ता था लोकिन वो दौर दूसरा था उस वक्त भारत को नयी -नयी आजादी मिली थी लेकिन आज के वक्त में सिस्टम का ये हाल... बच्चो को  स्कूल  जाने के लिए कितनी मुसीबत उठानी पड़ रही  है... मामला समझा जा सकता है कि हमारे देश के सिस्टम से अबतक पोलियो खत्म नहीं हुआ हैं... 



 पानी बहती पुल से जब पानी निकल गया तो देखीये ये गढ़ा ...इसमें आये दिन लोग गिरते है और घायल होते है.. हमारा सिस्टम खुद गढ़े में है तो क्या हम गढ़े में एक बार गिर नहीं सकते...?
टूटी हुई पुलिया की तस्वीर गरियाबंद इलाके  की हैं। 
ये तमाम तस्वीरे छत्तीसगढ़ राज्य की हैं...

Wednesday, July 15, 2015

छत्तीसगढ़ के खूनी खेल में शहीद सिपाही...क्योकी सिस्टम तो पोलियोग्रस्त हैं ।

13 जुलाई को शाम में अपहरण किये गये 4 पुलिस वालो को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार कर उनके सिस्टम को  चैलेंज किया है... अपहरण होने के बाद पुलिस रात भर कुछ नहीं कर पायी..कल सुबह से सर्च आपरेशन शुरू किया गया था और अब पुलिस वालों ने अपने साथियो के लाथ को दुढ़ने में सफलता हासिल कर ली हैं। पता नहीं नेताओं के शर्म कब आयेगी...इनका अपहरण  बीजापुर के कटरू और फसेडगढ़ के बीच किया गया था...









Saturday, July 11, 2015

ए भैया व्यापमं....






ए भैया व्यापम ,तुम इतने व्यपाक क्यों हो ,
अक्षय जानना चाहते थे की तुम इतने घातक क्यों हो!
रोज नये खुलासे किये जा रहे थे ,
अक्षय द्वारा भी यही तथ्य तलाशे जा रहे थे !
भोपाल से लेकर ग्वालियर तक तुम्हारे तार जुड़े थे,
अक्षय भाई उन कड़ियों को जोड़ने के लिए खड़े थे !
एक -एक कर के सारे अहम लोग मारे जा रहे ,
अक्षय द्वारा सारे दस्तावेज जुगाड़े जा रहे थे !
झाबुआ में कुछ लोग अहम सुराग छुपाते जा रहे थे ,
अक्षय भाई अपने स्तर पर वो सुराग जुटाते जा रहे थे!
इसी बीच उन हत्यारों का पूरा तंत्र हिल गया था ,
अक्षय भाई लगता है आपको कुछ बेहद अहम मिल गया था !
हत्यारों ने एक घातक षड्यंत्र बना लिया,
अक्षय भाई उन्होंने आपका वजूद मिटा दिया !
आपके लिए न्याय की बात करते नेताओं के दिल बड़े काले थे,
अक्षय भाई आज आप नहीं है लेकिन इतना कहूँगा की आप बड़े जिगरा वाले थे ।








सच्चर कमेटी के उस पार....










भारत में अक्सर मुसलमानों की सामाजिक और आर्थिक हालत को लेकर बहस होती है. मुसलमानों की आर्थिक हालत को जानने के लिए बनी सच्चर कमेटी ने भी मुसलमानों के पिछड़ेपन का जिक्र किया था.जिसके बाद समय - समय पर  सच्चर कमेटी  की रिपोर्ट राजनीति में वोट बैंक के तौर पर इस्तमाल की जाती रही हैं।  सच्चर कमेटी ने अपने रिपोर्ट में यह बताया था की देश के मुसलमानों के हालत बेहद खराब हW।

   


दूसरे तरफ मुसलमानों की सरकारी तंत्र के उच्च पदों या अहम विभागों में भागीदारी नाम मात्र के लिए हैं ।सुरक्षा एंजेसी रॉ और आईबी में मुसलमानों की नियुक्ति ही नहीं होती । हांलकि ऐसा कभी किसी सरकार द्बारा घोषित रूप से कुछ कहा नहीं गया है लेकिन फिर भी मुसलमानों की भागीदारी ना होने पर ये सवाल लगातार उठते रहें कि देश की सरकार अपने ही देश के एक समुदाय के प्रति इतना असुरक्षित क्यों महसूस करती हैं। बहरहाल हम इस लेख में मुसलमानों के उनके ही मुल्क में बिगड़ते और हद से ज्यादा बदत्तर होते हालत के बारे में बात करने जा रहें हैं।
  सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कुल अनुशंसाएं ध्सुझाव  76
 सरकार द्वारा 72 अनुशंसाएं स्वीकृत
 3 अनुशंसाएं स्वीकृत नहीं की गई थी।
 1 अनुशंसा आस्थगित कर दी गई थी

  




केंद्र सरकार के एक सर्वे में पता चला है कि भारत में मुसलमानों का जीवनस्तर सबसे नीचे है.
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन यानी एनएसएसओ के एक अध्ययन श्भारत के बड़े धार्मिक समूहों में रोजगार और बेरोजगारी की स्थिति में पता चला है कि मुसलमानों का जीवनस्तर सबसे नीचे है
एनएसएसओ के सर्वे के मुताबिक मुसलमानों का औसत प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च सिर्फ 32-66 रुपए है-
सिखों की हालत बेहतर
वहीं सिख समुदाय की हालत तुलनात्मक रूप से बेहतर है. सिख समुदाय में औसत प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च 55-30 रुपए है.
हिंदुओं में औसत प्रति व्यक्ति प्रति दिन खर्च 37-50 रुपए और ईसाई समुदाय में औसत 51-43 रुपए प्रतिदिन है.
एनएसएसओ के इस सर्वे के मुताबिक मुसलमान ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में सबसे नीचे हैं.
मुसलमानों का ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति परिवार औसत मासिक खर्च 833 रुपए है जबकि हिंदुओं के लिए ये आंकड़ा 888, ईसाइयों के लिए 1296 और सिखों के लिए 1498 हैA
वहीं शहरी इलाकों में भी मुसलमानों का प्रति परिवार औसत मासिक खर्च सबसे कम 1272 रुपए था जबकि हिंदुओं का 1797 ईसाइयों का 2053 और सिखों का 2180रुपए था A

बात मुसलमानों के रोजना आय की हो या फिर पढ़ाई की हर क्षेत्र में मुसलमान पिछड़े हुए हैं लेकिन बीते वर्षो में उनके हालात में कुछ सुधार आया हैं।  1999 से 2000 के बीच में मुसलमानों की साक्षरता दर ग्रामीण इलाकों में 52 प्रतिशत था जो वर्ष 20072008 में 63प्रतिशत हो गया । वहीं शहरी इलाकों में साक्षरता दर वर्ष 20072008 में 69 प्रतिशत था जो वर्ष 2007-2008 में 75 प्रतिशत हो गया ।
बीते वर्षो में अल्पसंखयकों को दिए जाने वाले ऋणों के आवेदन और स्वीकृत आवेदन की सूची  


सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू करने वाली सरकारें जब बड़ी- बड़ी दावे करती हैं तो उनकी निगाहें इन रिपोर्टों पर जाकर ठहरती नहीं होंगी अगर ठहरती तो ऐसे दावों के जगह उनकों लागू की गयी नीतियों को दूरूस्त करने पर ध्यान देना चाहिए था ।गांव हो या शहर हर जगह छोटे उम्र के मुसलमान बच्चे आपको हाथों में नट बोल्ट कसने वाले समान लिए दिख जायेंगे या किसी फैक्ट्री में निम्न स्तर पर काम करते दिख जाएंगे  , चाहे आप हैदराबाद चले जाएं या हजारीबाग़ या फिर सूरत । आखिर क्यों मुसलमानों के बच्चे देश के आईएएस ,आईआईटी जैसे और भी कई उच्च संस्थानों में उनकी भागीदारी बेहद कम क्यों है ?मुसलमान के बच्चे क्यों कम उम्र में ही पढ़ाई से ज्यादा रोजगार की तरफ बढ़े चले जाते है ? क्यों मुसलमान के बच्चे 5वीं,8वीं और 10वीं के बाद स्कूल छोड़ जाते हैं ?  जाहिर हैं जवाब कम और सवाल ज्यादा हैं लेकिन इन सब के बीच  एक बात जो सीधे तौर पर समझी जा सकती हैं वो ये कि भूखे की जरूरत रोटी है और रोटी के लिए जरूरत हैं पैसा की । सच्चर कमेटी में अपने रिपोर्ट में साफ -साफ कहा कि मुसलमानों को पढ़ाई और रोजगार देने के लिए उचित व्यावस्था कि जाये जिससे उनके बिगड़ते हालात में सुधार लाया जा सकें । सरकरी पन्नों में ऐसे कई योजनाएं सफलता पूर्वक चलाई जा रहीं हैं जिसमें मुसलमानों के बच्चों के लिए स्कोलर्शिप प्रोग्राम और रोजगार उपलब्ध या व्यवसाय करने में मदद की बात कहीं जाती रहीं हैं लेकिन सच्चाई आप सबके सामने हैं । इन सब मुद्दों के साथ एक अहम मुद्दा मुसलमानों की सुरक्षा का भी हैं । बीते महीने एक अमेरिकी रिपोर्ट में यह बात सामने आयी की मोदी की सरकार आने के बाद भारत में धार्मिक लकीरें और तल्ख हो गयी हैं। हमने अपने पिछले अंक में हरियाणा राज्य के बल्लगढ़ जिले में हुए संप्रदायिक दंगों के बारे में खबर छापी थी जहां मुलमानों ने जान जाने के भय से थाने में शरण ली थी ।वहीं यूपी के शामली से भी खबरें आयी थी कि मुलसमानों को चिन्हीत करके बस और ट्रेन से उतार कर पीटा जा रहा हैं । ये घटानएं महज उदाहरण मात्र हैं क्योंकी ऐसी घटनाएं पूरे यूपी सहित भारत में घटित हो रहीं हैं ।इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी भारत दौरे के दौरान इन बातों का जिक्र कर डाला था । जिसके बाद भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देशवासियों को बार-बार सदभावना और भाईचारे का संदेश देना पड़ा लेकिन लगता हैं बात उससे भी नहीं बनी हैं । सच्चर कमेटी की सफारिशों को अगर सहीं रूप से लागू करवाया जायें और उसके लिए एक निगरानी टीम की या एक ऐसी संस्थान की स्थापना की जाये जो लगातार सच्चर कमेटी की सिफारिशों के बाद सरकार द्वारा उठाये गये कदमों को प्रभावी रूप से लागू करवाये, लोगों को जागरूक बनाये और निगरीनी भी करती रहें तो फिर कहीं ना कहीं मुसलमानें के हालात में तेजी से बदलाव लाया जा सकता हैं और पीएम मोदी की वो बात भी सच हो सकती है कि एक हाथ में कुरान और दूसरे में कम्पयूटर ।

अगर धोनी को हटाओगे तो धोनी जैसा कहां से लाओगे...?







जब आत्मविश्वास डगमगाने लगे तो सामने घुप्प अंधेरा छा जाता है. जब पिच पर क्रोध में खिलाडी को धक्का देने लगे तो संयम की परीक्षा शुरू हो जाती है. जब लगातार हार मिल रही है तो कप्तान के काबलियत पर सवाल शुरू हो जाते हैं. जब मैच के बीच में कप्तानी छोड़ने की बात होती है तो ये सवाल शुरू हो जाते है कि वो कैप्टन कूल नहीं रहे. जब क्रिक्रेट में राजनीति शुरू हो जाए तो जीत पर असर पड़ता है. जब कप्तान को नीचा दिखाने की कोशिश होता है तो जाहिर है कि कप्तान का आत्मविश्वास हिलने लगता है. इन्हीं सारे सवाले के बीच कैप्टन महेन्द्र सिंह धोनी मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. चाहे क्रिकेट में जीत का मामला है या असल जिंदगी में सफलता का मामला है आत्मविश्वास सातवें आसमान पर चढ़ जाता है लेकिन हार से आत्मविश्वास गर्त में पहुंचने लगता है. जिंदगी की हकीकत है कि ऐसे निराशा का माहौल हर शख्स की जिंदगी में आता है जो इसमें फंस जाता है वो टूट जाता है और उबर जाता है फिर वो जीत जाता है. जी हां महेन्द्र सिंह धोनी आजकल क्रिक्रेट के मझधार में हिचकोले खा रहें हैं और चारों तरफ से ये आवाज आ रही है कि क्रिक्रेट में धोनी का समय अस्त होने वाला है.

बांग्लादेश के खिलाफ एकदिवसीय श्रृंखला में मिली लगातार दो हार से लगता है कि धोनी साफ टूट गये हैं. हार के बाद धोनी ने यह कहते हुए कप्तानी छोड़ने की पेशकश की थी कि अगर उनके कप्तानी छोड़ने से भारतीय क्रिकेट को मदद मिलती है तो वह ऐसा करने के लिए तैयार हैं. टीम हारती है तो कप्तान को बलि का बकरा बनाया जाता है और टीम जीतती है तो ये कहा जाता है कि पूरी टीम की जीत हुई है. ऐसा प्रतीत होता है कि महेन्द्र सिंह खुद टूट नहीं रहें हैं उन्हें तोड़ने की कोशिश हो रही है. अभी इसी साल धोनी के नेतृत्व में टीम इंडिया वर्ल्ड कप में सेमीफाइनल में पहुंची थी . धोनी के नेतृत्व सुपरकिंग्स चेन्नई की टीम आईपीएल 2015 फाइनल में पहुंची थी . ये दो बड़े मैच के नतीजे से ये साबित हो रहा है कि धोनी के नेतृत्व में प्रदर्शन की क्षमता है वरना कहां से धोनी की टीम सेमीफाइनल और फाइनल में पहुंचती. बांग्लादेश में विराट कोहली के नेतृत्व में टीम इंडिया टेस्ट मैच नहीं जीत पाई बल्कि मैच ड्रॉ हो गया था . टेस्ट मैच का ड्रॉ होना और वन डे मैच में हार जाना ये भी संकेत देता है कि बांग्लादेश की टीम फुल फॉर्म में है. यही वजह है कि सिर्फ 200 रन पर ही पूरी टीम पस्त हो गई है वहीं गेंदबाज पूरी तरह विफल हो गये . जो जुबान पहले धोनी की जीत पर वाहवाही करती थी वही जुबान धोनी के खिलाफ कसीदे पढ़ रहें हैं. ये कहा जा रहा है कि पहले बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन अब उनकी कप्तानी का सूर्यास्त हो रहा है यानि धोनी के दुश्मन कोहली की कप्तानी में चार चांद लगाने का सपना देख रहें हैं.

धोनी के खिलाफ किसकी साजिश है?
ये पहली बार हो रहा है कि वह बहकी-बहकी बातें कर रहें हैं और साफ दिख रहा है वो अब कैप्टन कूल नहीं रहे . इसकी दो वजहों हो सकती है कि उनके खुद पर आत्मविश्वास नहीं रहा है और दूसरी बात ये हो सकती है कि अंदर- अंदर उनके आत्मविश्वास को तोड़ने की कोशिश हो रही है. उन्होंने हार के बाद ये कहा कि अगर कुछ समय के लिए कोच की जगह खाली भी रहे तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है क्योंकि इसके लिए सही व्यक्ति को लाना जरूरी है,कोच नहीं है तो किसी को डाल दो वहां पर, अगर आप ऐसे फैसले लेंगे तो भविष्य में इसका बुरा असर पड़ेगा. वो कोच के बहाने निशाना साध रहें हैं और ये देश को बताने की कोशिश कर रहें हैं कि उनके खिलाफ साजिश हो रही है और उन्हें घेरने और नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है. धोनी ने कप्तानी करते हुए पिछले आठ सालों में विदेशों में कुल 62 जीत दर्ज की हैं लेकिन दो साल से उनके प्रदर्शन पर असर पड़ा रहा है और ये भी साफ है कि इन दो साल में अंदरुनी उठापटक जारी है. धोनी की कप्तानी में टीम इंडिया पहला टी 20 और विश्वकप जीती. टीम नंबर वन हुई .

क्या विराट कोहली धोनी की भरपाई कर पाएंगे ?
धोनी के खिलाफ एक लॉबी काम कर रही है तो वही लॉबी विराट कोहली को बढ़ाने में लगी हुई है. विराट कोहली अच्छे क्रिकेटर हैं लेकिन कैप्टन कूल जैसी कला नहीं है. टेस्ट मैच में विराट कोहली अच्छा प्रदर्शन कर रहें हैं लेकिन कप्तानी के मामले में उनकी परीक्षा अभी ठीक ढंग से नहीं हुई है. वहीं अब वनडे में भी उन्हें कप्तान बनाने की कवायद शुरू हो गई है. बेशक विराट कोहली बेहतरीन खिलाड़ी है लेकिन वो दबाव को झेलने में सक्षम नहीं हैं. उनपर गंभीर आरोप लगता रहा है कि वो पंगे भी लेते हैं. हाल में ऑस्ट्रेलिया में शिखर धवन और विराट कोहली के बीच तू-तू-मैं-मैं की खबर आई थी धोनी ऐसे कप्तान थे जो इस बात पर पर्दा डालने की कोशिश की. यही नहीं विराट कोहली ने आस्ट्रेलिया के खिलाड़ी मिचल जॉनसन से भी पंगा लिया था लेकिन धोनी के बारे में ऐसी खबर नहीं आई है हालांकि उन्होंने हाल में ही वो बांग्लादेशी खिलाड़ी को धक्का देने का काम किया . कोहली पर इसी साल एक पत्रकार को गाली देने का आरोप लगा था यही नहीं विश्व कप के सेमीफाइनल में टीम इंडिया हारी तो गर्लफ्रेंड अनुष्का शर्मा की वजह से विराट कोहली पर खेल के दौरान विचलित होने का आरोप लगा था. सेमीफाइनल मुकाबले में 13 गेंदों में सिर्फ एक रन बनाकर पवेलियन लौटने वाले विराट कोहली की जमकर आलोचना हुई थी. कोहली की आलोचना की वजह उनकी प्रेमिका अनुष्का शर्मा भी थीं, जो सेमीफाइनल मैच का मुकाबला देखने सिडनी गई थीं . सेमीफाइनल मैच के बाद हुए बर्ताव पर विराट कोहली ने बाद में अपना दर्द बयान करते हुए कहा था वे उस घटना से काफी निराश और दुखी हैं. ऐसे में महेन्द्र सिंह के द्वारा कप्तानी छोड़ना टीम इंडिया के लिए महंगा साबित हो सकता है ।


इतने से काम नहीं चलता और चाहिए....





लोग अक्सर बापू से एक सवाल करते थे कि आप एक ही धोती को पहनते भी हैं और आधा ओढ़ते भी है ,ऐसा क्यों?  बापू इस बात का जवाब बड़ी सहजता से देते हुए कहते थे कि “मैं वो पहनता हूं जो मेरे देश का न्यूनतम वर्ग का नागरिक आसानी से पहन सकें।“ जी, लेकिन अब बदलते वक्त के साथ हमारे देश के नेताओं के विचार भी बदलने लगे हैं। सभी नेताओं के जुबान से आज भी गांधी जी के आर्दशों के बारे में अक्सर सुनने को मिल जाता है लेकिन वो खुद बापू के विचारों को अपने जीवन में कितना उतारते है यह तो आपके सामने ही हैं। हमारे देश में वीवीआईपी कल्चर कुछ इस कदर बढ़ चुका हंै कि एक बच्ची घंटो जाम में फंस कर जान से हाथ धो बैठती है क्योंकि नेताजी के स्वागत में इतने समर्थक आ गये कि दो घंटे तक शहर जाम हो गया । उस बच्ची को तत्काल ईलाज की जरूरत थी लेकिन उस बच्ची के मां-बाप अपनी फूटी किसमत पर रोते रह गये । इन दिनों टीवी , रेडीयो पर सरकार समर्थवान लोगों से गैस की सब्सीडी त्यागने का आवेदन कर रही हैं लेकिन  देश के माननीय सांसद ,उनके रिशतेदार और संसद भवन में काम करने वाले सरकारी लोग खुद संसद भवन में सब्सीडी वाली लजीज व्यंजन का मजा लेते दिख जांएगे । बीते महीनें की बात है कि हमारे देश के पीएम भी संसद भवन की कैंटीन में जाकर खुद सब्सीडी वाला भोजन का लूफ्त ले आये थे । आप संसद भवन की कैंटीन का रेट तो जानते ही हैं। 20 रुपये की मटन करी और 4 रुपये प्लेट चावल। दो रुपये में पूड़ी सब्जी खा सकते हैं। अंत्योदय योजना कहीं ठीक चल रही है तो वो संसद भवन की कैंटीन है।जब कैंटीन से सब्सीडी हटाने की बात की गयी तो एक सांसद महोदय ने यहां तक कह दिया कि ऐसा करके हम गरीबों के पेट में लात नहीं मार सकते । तो इन बात को सुन कर लगा कि देश का सबसे गरीब तबका क्या संसद में है या फिर वो आंकड़े सच है जो बताते है कि देश में अब भी 28 करोड़ से ज्यादा लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं  । 20 करोड़ भूखे लोग भी है जो पूरे विश्व में कहीं भी नहीं है । हम इस मामले में पहले स्थान पर है । इस बात की मुबारकबाद किसी दी जानी चाहिए ?  क्या कोई है जो इस दुर्गति का ठिकरा अपने माथे ले या फिर वहीं होगा जो देश में आक्सर होता हैं आरोप-प्रत्यारोप । खैर ,इस मसले से आगे निकलते हुए हम सांसदो के वेतन के बारे में बात करने जा रहे है ।  आपको कई जगह ऐसा मिलेगा कि सासंद साहब पार्षद का काम कर रहे हैं, विधायक जी अपनी जिम्मेदारी सांसद पर टाल रहे हैं। इसी का लाभ उठा कर कई सांसद कई जगहों से सुविधा भी ले लेते हैं।

नैनिताल से बीजेपी सांसद भगत सिंह कोश्यिरी को देहरादून में पूर्व मुख्यमंत्री के नाते एक सरकारी मकान मिला हुआ है। इस बंगले के रखरखाव और सुरक्षा पर राज्य सरकार एक साल में करीब 40 लाख रुपये खर्च कर देती है। पूर्व मुख्यमंत्री के नाते इन्हें तीन सहायक रखने के लिए हर महीने 85 हज़ार रुपये मिलते हैं।

हरिद्वार से बीजेपी सांसद रमेश चंद्र पोखरियाल निशंक को भी पूर्व मुख्यमंत्री के नाते सरकारी बंगला मिला हुआ है। आरटीआई की जानकारी बताती है कि 2010 से 2011 के बीच यानी एक साल में पूर्व मुख्यमंत्री के नाते निशंक को मिली सरकारी कार के पेट्रोल और रखरखाव पर 22 लाख रुपया खर्च हुआ है। मौजूदा मुख्यमंत्री हरीश रावत और पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उत्तराखंड से विधायक बनने के बाद भी दिल्ली में मिले सरकारी मकान को छोड़ नहीं पा रहे हैं। नारायण दत्त तिवारी के पास देहरादून और लखनऊ में पूर्व सीएम के नाते सरकारी मकान मिला हुआ है।

 तो दूसरी ओर पंद्रह जून से हमारे सैनिक जंतर मंतर पर वेतन और पेंशन के लिए भूख हड़ताल कर रहे हैं लेकिन हमारे सांसद कितनी आसानी से अपनी सुख सुविधा और सैलरी बढ़ाने का प्रस्ताव भेज देते हैं। संसदीय कमिटी ने सांसदों की तनख्वाह डबल करने का सुझाव दिया है। इसके बाद हमने कमेटी के चैयरमैन गोरखपुर से सासंद योगी आदित्यनाथ की सैलरी का हिसाब लोकसभा की साइट से निकाला है। उसी के आधार पर मौजूदा और प्रस्तावित हिसाब बताते हैं।
मार्च 2015 में आदित्यनाथ जी को कुल 3 लाख 8 हज़ार 666 रुपये मिले थे।
बेसिक - 50,000
संसदीय क्षेत्र भत्ता - 45,000
आफिस का खर्चा - 15,000
सहायक की सैलरी - 30,000
यात्रा और दैनिक भत्ता - 1,68,666

कमेटी ने सुझाव दिया है कि बेसिक 50,000को से बढ़ाकर 1 लाख कर दिया जाए। पूर्व सांसद के पेंशन को 20,000 से बढ़ाकर 35,000कर दिया जाए। सहायक को भी सांसद के साथ रेल में प्रथम श्रेणी एसी का फ्री टिकट मिले। पूर्व सांसद को भी एक साल में हवाई यात्रा के लिए 20- 25 टिकट फ्री मिले।
दिल्ली में घर, फोन, फर्नीचर मुफ्त मिलता है। स्टीमर का भी भत्ता मिलता है। देश की संसद में कोई-कोई  बिल पास करवाने में महीनों और साल गुजर जाते है लेकिन इस वेतन बढ़ाने के मामले में तो बमुश्किल 5 मिनट लगेंगे और ध्वनि मत से प्रस्ताव सभी पार्टियों की सहमती से पास हो जाएगा। जिस पार्टी की सरकार केन्द्र में है वही पार्टी दिल्ली विधानसभा के विपक्ष में हैं। जब दिल्ली के नेताओं में अपने वेतन को बढ़ाने की बात कही तो विपक्ष के नेता ने कहा कि हम वेतन बढ़ाने के खिलाफ में है और हम एक रुपये के वेतन में  भी काम करने को तैयार हैं। एक ही पार्टी के दो नेताओं का दो अलग-अलग पक्ष हैं किसे सहीं ठहराये और किसे गलत । खबर यह भी है कि गुजरात सरकार उन सरकारी स्कूल के टीचरों के वेतन नहीं बढाएगी जहां के बच्चे 10 वीं और 12वीं के परिक्षा में 30 प्रतिशत से कम पास हुए है । संयोग देखिए कि वहां भी बीजेपी की सरकार हैं। अगर यह व्यवस्था टीचरों पर लागू हो सकता है तो देश के सांसदो पर क्यो नहीं ? हर साल सांसदो के काम की समीक्षा करके उनके वेतन को बढ़ाने -घटाने का काम क्यों नहीं किया जा सकता है?सासंदों के काम को देखकर अगर वेतन तय किया जाने लगे तो इससे सुस्त पड़ी परियोजनाओं को भी बल मिलेगा और सांसद को चुन कर भेजने वाले नागरिकों की भी बल्ले - बल्ले हो जाएगी ।


योग करके देखो अच्छा लगता हैं।


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दुनिया के किसी देश का कोई प्रस्ताव इस तरह स्वीकार हो और उसका ऐसे अनूठे तरीके से साकार होने की शुरुआत हो तो वह गर्व से सीना फुलाकर चलेगा। पूरे देश में एक आत्मसंतोष का भाव होगा। गर्व का अर्थ घमण्ड या बड़प्पन का भाव नहीं होता। इसका यह अर्थ भी नहीं होता कि हम स्वयं को अन्यों से विशिष्ट या श्रेष्ठतर मान रहे हैं। यह तो विश्व के कल्याण में, मानव समुदाय के हित में और विस्तारित करें तो प्रकृति और ब्रह्माण्ड के साथ मनुष्य को एकाकार कराने में अपनी विद्या के प्रयोग की विनम्र आत्मसंतुष्टि है। पर हम इसका खुलकर श्रेय नहीं ले सकते। ऐसा करने वाले को फुहर या अतिवादी या फिर फासीवादी तक करार दे दिया जाएगा। विचित्र स्थिति है।
अगर संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून की मानें तो यमन को छोड़कर 192 देशों के लोगों ने योगाभ्यास में हिस्सा लिया जिनकी संख्या 2 अरब के आसपास जा सकती है। हमारे देश के प्रस्ताव पर योग दिवस के दिन दुनिया भर के 252 से ज्यादा शहरों में इतने ज्यादा लोगों ने योग किया। इनमें गांव, कस्बे आदि शामिल नहीं हैं। यह ऐसा रिकॉर्ड है जो शायद ही कभी टूटे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहां कि आज विश्व के किसी क्षेत्र में जिस समय सूरज की किरणें निकलेंगी वहां योगाभ्यासी होंगे। यह निश्चय ही ऐतिहासिक स्थिति है। स्वयं मून ने यह स्वीकार किया कि विश्व संस्था ने अनेक दिवस बनाए हैं लेकिन जैसा अप्रत्याशित जोश योग दिवस को लेकर दिखा वैसा पहले कभी नहीं हुआ।
यह तो विश्व के कल्याण में, मानव समुदाय के हित में और विस्तारित करें तो प्रकृति और ब्रह्माण्ड के साथ मनुष्य को एकाकार कराने में अपनी विद्या के प्रयोग की विनम्र आत्मसंतुष्टि है। क्या हम किसी बीमार की सेवा करके गर्व नहीं करते हैं? क्या हम किसी भटके हुए को सही रास्ता दिखाकर आत्मसंतोष का अनुभव नहीं करते? तो गर्व का अर्थ यह है।
वास्तव में भारत की संस्कृति की यही विशेषता रही है। हम कभी अपने योगदान को लेकर अहं भाव में नहीं आते, किसी को हेय या हीन मानने की भावना भारतीय संस्कृति सभ्यता का अंग नहीं हो सकता। योग अपने आप मनुष्य को अहं से परे निकालने की साधना है। यहां के जीवन दर्शन में सभी चर-अचर, जीव-अजीव में एक ही तत्व देखने का भाव हमें ऐसा होने से रोकता है। योग भी यही भाव पैदा करता है। योग जिसका अर्थ ही है जोड़ना यानी सम्पूर्ण दृश्य अदृश्य जगत को एक साथ जोड़ देने वाली विद्या। तो जो योग सबमें एक ही तत्व का दर्शन करता हो, योग साधक को परमतत्व से जोड़ देने की अवस्था में ले जाता हो, जो निजत्व से बाहर निकलकर समष्टितत्व तक व्यक्ति को विस्तारित कर देता हो, वहां किसी संप्रदाय, किसी जाति, किसी देश या किसी समाज को अपने से हेय या हीन मानने का भाव पैदा कहां से हो सकता है। जाहिर है, ऐसा वे लोग कह रहे है जो इसे समझते ही नहीं या इस मूल सच को स्वीकारते ही नहीं। तो जो सच जानते नहीं, जिनकी समझ की सीमायें हैं, वो अगर शोर मचा रहे हैं, उपहास उड़ा रहे हैं, इस पूरे प्रयास को हास्यास्पद करार दे रहे हैं तो इसका संज्ञान क्यों लिया जाए? ये अपना काम करें, हम अपना काम करें।
क्या हमने-आपने कभी कल्पना की थी कि भारत की पहल पर विश्व में ऐसा दृश्य कभी उत्पन्न होगा कि हर कोने से लोग निकलकर योग करेंगे और इसके लिए पूर्व तैयारी में भी उत्साह से शिरकत करेंगे? अगर यह अकल्पनीय घटित हो गया तो इस पर उत्साह मनाने, इसे अपनी उपलब्धि मानने या इस पर गर्व करने में समस्या क्या है? विश्व के किसी सुविज्ञ नागरिक को भारत के इस आचरण पर आपत्ति भी नहीं हो सकती है। जबसे संयुक्त राष्ट्रसंघ बना है, इस तरह महासभा में किसी प्रधानमंत्री द्वारा रखे गए प्रस्ताव को इतने कम समय में इतने ज्यादा देशों का सर्वसम्मत समर्थन नहीं मिला था। देश के अंदर राजनीति होती है। देश के बाहर कोई राजनीति नहीं। सीमा के बाहर भारत के प्रधानमंत्री का मतलब भारत है। प्रधानमंत्री के किसी प्रस्ताव का इस तरह सोत्साह केवल औपचारिक स्वीकृति नहीं, जनता के बीच स्वीकार किए जाने का यह पहला ही अवसर है। इसलिए यह समूचे भारत के लिए गर्व का विषय है। मजहब, संप्रदाय, भाषा, संस्कृतियां ही नहीं, संप्रभुता, भूगोल और राजनीति की सीमाओं को लांघकर अगर इतनी संख्या में लोगों ने एक ही प्रकार की क्रिया किया तो इससे कुछ समय के लिए ही सही एकता का प्रादुर्भाव तो हुआ। योग ने पता नहीं कितने वर्षों बाद विश्व के हर कोने के लोगों को चाहे संख्या कितनी हो, एक धरातल पर लाकर खड़ा किया और यह मानवीय एकता का आधार बना है। इसे हम ऐतिहासिक क्यों न मानें! हम जानते हैं कि केवल एक दिन योग कर लेने से बहुत अंतर नहीं आएगा, लेकिन इसी के साथ यह रुक जाएगा ऐसा क्यों मान लें। यह हमारी ही तो जिम्मेवारी है कि प्रक्रिया आगे जारी रहे, बढ़े , इससे और लोग जुड़ते जाएं और एक कारवां विश्व समुदाय का योगमय होता रहे। इस आधार पर एक युग का बीजारोपण कह ही सकते हैं। प्रधानमंत्री ने राजपथ पर योग आरंभ होने के पूर्व के संक्षिप्त संबोधन में कहा भी आज से शांति, सदभाव को उंचाइयों पर ले जाने तथा मन के प्रशिक्षण के एक युग की शुरुआत हो रही है। प्रेम, शांति, सद्भावना एवं एकता को फैलाने का कार्यक्रम है।
इसका दूसरा पहलू भी है। हर राष्ट्र का अपना राष्ट्रीय लक्ष्य होता है। किसी राष्ट्र का लक्ष्य धन, सेना, व्यापार आदि के आधार पर महाशक्ति बनने का लक्ष्य हो सकता है। इस समय विश्व में ऐसा वातावरण निर्मित हो गया है जिसमें लगता है कि सभी राष्ट्रों को लक्ष्य एक ही है। ऐसा है नहीं। सुभाष बाबू ने कहा कि भारत की आजादी इसलिए नहीं चाहिए कि इसे सैनिक और आर्थिक महाशक्ति बनना है, इसे विश्व के लिए आदर्श महाशक्ति बनना है। यानी इसे अपने आचरण से ऐसा मानक बनना है जो आदर्श हो सके। तो क्या हो सकते हैं वे आदर्श? इसका वर्णन ज्यादातर महापुरुषों की सोच में परिलक्षित हो जाता है। उदाहरण के लिए गांधी जी ने कहा कि भारत की स्वतंत्रता इसलिए नहीं चाहिए कि यह भी अन्य देशों की तरह ताकतवर होकर उन्हीं की पंक्तियों में खड़ा हो जाए, , यह भी अन्यों के समान अपनी आर्थिक और सैनिक शक्ति से भय पैदा करे। गांधी जी के अनुसार उसे धर्म के अनुसार आचरण कर दुनिया को सही रास्ते दिखाना है। वह रास्ता है, सत्य, अहिंसा, अस्तेय का। सत्य अहिंसा अस्तेय ये तीनों आष्टांग योग की पहली सीढ़ी यम के पांच तत्वों में से तीन हैं। तो भारत का राष्ट्रीय लक्ष्य यह है कि विश्व को भौतिकता की, भोग साधनों की और इसके लिए जितने तनाव, संघर्ष, टकराव, अस्त्र प्रतिस्पर्धायें हैं, मजहबी, सांप्रदायिक संघर्ष हैं उन सबसे बाहर निकालने के लिए विश्व की सामूहिक चेतना में परिवर्तन लाना। योग इसका केन्द्रीय साधन हो सकता है। व्यायाम योग का अंग है, लेकिन यही योग नहीं है। आसन, प्रणायामों के साथ यम नियम का ऐस भाव व्यक्ति के अंदर अपने आप पैदा होने लगता है कि वह राग, द्वेष, उपभोग लालसा से परे होकर विश्व कल्याण की दिशा में विचार करने लगता है। अगर व्यक्ति अकेले हैं तो फिर एक व्यक्ति का चरित्र ऐसा बनेगा, लेकिन अगर सामूहिक रुप से इसमें ज्यादा लोग जुड़ते हैं तो ऐसी चेतना का विकास सामूहिक होगा।
कांग्रेस प्रथम प्रधानमंत्री प. जवाहरलाल नेहरु द्वारा शीर्षासन करती हुई तस्वीर दिखाकर कह रही है कि नरेन्द्र मोदी को ऐसा करने में 15 वर्ष लग जाएंगे। किसने कहा कि कांग्रेस के नेता योग नहीं करते थे या नहीं करते हैं? योग न करते तो आजादी के संघर्ष में उतनी परिश्रम और सहनशीलता की शक्ति नहीं आती। किंतु इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को हीन साबित करना जरुरी नहीं था। यह तो अशालीनता है। ऐसे अवसर राजनीति के लिए नहीं होते। कांग्रेस जिस प्रकार से सूर्य नमस्कार का विरोध करने में लगी थी उससे तो यह साफ था कि देश में राजनीति अब यहां तक आ चुकी है कि हम एक विश्व स्तरीय कार्यक्रम पर एक सहमति बनाकर देश का नाम स्वर्ण अक्षरों में नहीं लिख सकते ।राजनीतिक सीमाओं से बाहर निकलकर इतिहास निर्माण और विश्व कल्याण में भूमिका निभाने के अवसर में सबको भागीदारी करने की आवश्यकता होती है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने राजपथ योग कार्यक्रम में भाग लिया जो कि स्वागत योग्य था। लेकिन उत्तराखंड सरकार ने स्वयं को इससे अलग रखा जो दुखद है। यह नहीं होना चाहिए था। यह किसी पार्टी का नहीं , भारत का आयोजन है जिससे पूरी दुनिया जुड़ रही है। पूरे देश को इसके महत्व, और अपनी भूमिका का भाना होना चाहिए।
  वास्तव में 21 जून 2015 से भारतीयों को यह अहसास होना चाहिए कि आपका अपने प्रति और विश्व के प्रति दायित्व क्या हैं। उस दायित्व के अनुरुप आपको आगे काम करना है। भारत के अंदर और इसकी सीमाओं को पार करते हुए व्यक्ति से समष्टि तक योग का सामूहिक विस्तार करने में तथा हमारी अपनी भूमिका का निर्धारण हमें ही करना है। हम ही अगर इस एक दिन को उपलब्धि मानकर इतिहास निर्माण मानकर  रुक जाएंगे तो फिर हमारा जो राष्ट्रीय लक्ष्य है, भटके हुए विश्व को बिना अहं पाले और बहुत तामझाम किए चेतना के स्वतः विकास की धारा बनाने का जो सपना है वह यही थम जाएगा। इसलिए 21 जून के बाद से भारत की व्यापक और चैतन्य भूमिका की शुरुआत होती है।