लिखते . लिखते हमारे कलम की स्याही फिकी पड़ सकती है लेकिन नक्सलवादियों द्वारा दिए जा रहे घटनाओं को अंजाम गहरी और गहरी होती चली जा रही हैं। जी, आज के वक्त में देश के भीतर अगर खतरे की सुगबूगाहट से ऊपर उठ कर कोई देश के लिए खतरा हो चला है तो वो नक्सलवाद ही हैं ।पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौर में नक्सलवादियों को खत्म करने के लिए ग्रीनहंट आॅपरेशन चला और उस आॅपरेशन ने नक्सलवाद को बहुत हद तक बांध दिया लेकिन बीतते समय के साथ यह ऑपरेशन भी ठंडा होता चला गया है । ये त्रासदी यहीं से शुरू हुई जब सरकार लाचार दिखने लगी और महज सेंकड़ों की संख्या वाले नक्सली दमनकारी होते चले गये ।कुछ महीनों के अंतराल पर ये लगातार कोई ना कोई बड़े साजिश को अंजाम देने में सफल हो जाते है चाहे रेलवे की पटरी उड़ानी हो या फिर जाल बिछा कर केन्द्रीय सुरक्षा बल के जवानों के ऊपर हमला करना हो ये हमला करते और फिर भाग निकलते है । आप आंकड़े उठा कर देख लीजिए दिल दहलने की जिम्मेदारी हम लेते है । 15 फरवरी 2010 को बंगाल में नक्सलीयों ने सीआरपीएफ के कैंप पर हमला कर 25 जवानों की हत्या कर दी, तो महज 50 दिनों बाद ही 6 अप्रील 2010 में 75 केन्द्रीय सुरक्षा बलों की हत्या कर दी गयी। जून 29 ,2010 को भी 26 जवानों की हत्या कर दी गयी और यहीं सिलसीला अब तक जारी हैं। अगर आकंडो की माने तो 2009 से लेकर 2012 तक हमारे 800 जवान शहीद हो गये हैं ।हजारों करोड़ रूपये हर राज्य सरकार को दिये जा रहे है ताकि वो नक्सल से लोहा से सके लेकिन नतीजा वहीं “ढ़ाक के तीन पात” ।
जब भी किसी राज्य में नक्सल घटना को अंजाम देते है तो उस राज्य के मुख्यमंत्री बड़ी उतेजना पूर्वक चंद शब्द कहते है कि शहादत का बदला लिया जायेगा ,घटना की रात उच्चस्तरीय बैठक ,किसी कमीटी का गठन और फिर मामला ठंड़े बस्ते में । कभी ऐसे मामलों में किसी नक्सल प्रभावित मुख्यमंत्री की बातों सुनियेगा सिस्टम से सबसे ज्यादा सताये हुऐ वहीं मालूम पड़ेगें और जब किसी पूराने मसले में सवाल किजीए तो जवाब रटा- रटाया आता है कि पुलिस तो हमारे हाथ में है लेकिन साआरपीएफ हमारे नहीं केन्द्र के अंदर है ,हम कुछ कर नहीं सकते । ऐसा बोलने वाले सीएम ये नहीं सोचते कि जो जवान मर रहा है वो भी किसी की बेटा, बाप, भाई ,पति, भतीजा हो सकता है । आखिर क्यो हमारे जवान शहिद होते जा रहे है और सरकार कोई कड़ा कदम नहीं उठा रही हैं? संसद के अंदर कुछ दिन पहले कई सांसदों ने मच्छर काटने की शिकायत की तो सबने बड़ी गंभीरता से लिया ,लिया भी जाना चाहिए आखिर सवाल देश के माननीय सांसदो के सेहत का हैं लेकिन अगर देश के यहीं सांसद बस्तर ,दंतेवाड़ा ,गुमला, चतरा, गिरीडीह जैसे जगहों में रह रहें सीआरपीएफ जवानों को होती दिक्कतों का मसला अगर संसद में उठाते तो कितना अच्छा होता । ऐसे सुदूर इलाकों में रह रहे जवानों के लिए ना अच्छे से रहने की व्यवस्था होती हैं ,ना खाने की और नाहीं शुध्द पानी पीने की । कई बार जवानों को 40 किलोमीटर पैदल चलकर बाजार से हरी सब्जीयां लानी पड़ती है । सीआरपीएफ के कैम्पों में रहने वाले कई जवान तो केवल इन मूलभूत सूविधाओं के आभाव में गंभीर रूप से बिमार भी हो चुके हैं । हमारे देश की सरकार कभी भी हिंसा में भरोसा नहीं रखती लेकिन जो लोग हर कीमत पर देश का पैसा बरबाद करने ,जावनों का बलिदान लेने पर आमादा हो उनके साथ कैसा सूलुक किया जाना चाहिए । 11 अप्रील को भी सूकमा जिलें मॆं नक्सलीयों ने घात लगाकर 7 सीआरपीएफ के जवानों को मौत के घाट उतार दिया और 10 जवानों को घायल कर दिया ।हमने यमन से 4000 भारतीयों को सुरक्षित तो निकाल लिया और अब 26 अन्य देशों के नागरिकों को निकालने में मदद भी कर रहे हैं लेकिन सूकमा जिले में हुऐ घटना में घायल जवान तो बच- बचाकर निकल आये लेकिन जो जवान शहीद हुऐ उनके शरीर को सरकार48 घंटे बाद जंगलों में से निकाल पाई जो किसी त्रासदी से कम नहीं हैं। सियासत एक ऐसी कला है जो सिख जाये उसे बाजीगर मान लिया जाता है तभी तो हमारे देश के सपूत अपनी बलिदान देते जा रहे हैं और नेता हमारे गुस्से को वोट में तबदील कर सियासत का तंदूर गरम करते जा रहे है । इन परिस्थितीयों में जो सवाल मन में है वो यह कि क्या अब हमलोग इस हालात से समझौता कर ले या फिर भगत सिहं के इस देश में अगर कुछ लोग खून-खराबें के आदि हो चले है तो सरकार उन्हें उनके ही तरीके से समझाकर देश को शांति का महौल क्यों नहीं प्रदान करती?
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